पटना। नीतीश कुमार के इस्तीफे के बाद उपजी स्थितियों ने कांग्रेस के भविष्य को भंवर में फंसा दिया है। इससे कांग्रेस की गैर भाजपा दलों को एक मंच पर लाकर केंद्र की मोदी सरकार को चुनौती देने की मुहिम को भी बड़ा झटका लगा है।
दरअसल महागठबंधन के दो प्रमुख दल राजद-जदयू के बीच तनातनी के दौरान कांग्रेस ने निर्णय लेने में बहुत देर कर दी। यदि कांग्रेस ने समय रहते यह तय किया होता कि उसे किसके साथ रहना है तो शायद कांग्रेस फायदे में रहती।
भ्रष्टाचार को लेकर नीतीश कुमार ने हमेशा जीरो टालरेंस की नीति अख्तियार की है। कांग्रेस भी इस बात को जानती है। इसके बावजूद उसने बिहार के उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के मसले पर फैसला लेने में बहुत देर कर दी। यदि कांग्रेस शुरू में ही भ्रष्टाचार के मसले पर अपनी नीति साफ करती और जदयू के साथ ही वह भी राजद पर तेजस्वी के इस्तीफे का दबाव बनाती तो शायद स्थितियां दूसरी होतीं।
परन्तु कांग्रेस इस पूरे मामले में ज्यादातर राजद के करीब ही नजर आई। इसके पीछे भी कांग्रेस की अपनी ही मजबूरियां हैं। कांग्रेस को पता है कि वोट बैंक राजद के पास है। इसलिए चाहते हुए भी वह नीतीश कुमार के साथ खड़ी नहीं दिखी।
वहीं कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और राहुल गांधी का रवैया भी लालू प्रसाद की तरफ झुका हुआ था। दोनों ने ही लगातार नीतीश कुमार और लालू प्रसाद से संपर्क बनाए रखा। कोशिश रही कि महागठबंधन को किसी प्रकार बचा लिए जाए। लेकिन उनकी यह कोशिश नाकाम रही।
अब जबकि महागठबंधन टूट चुका है कांग्रेस के लिए अगला कदम तय करना थोड़ा मुश्किल दिख रहा है। कांग्रेस को दोतरफा घाटा लगा है। एक ओर जहां वह बिहार की सत्ता से बाहर हो गई है वहीं 2019 के चुनाव के पहले उसके एक अच्छे सहयोगी को खोने की स्थितियां बन रही हैं। लेकिन, अभी भी बिहार कांग्रेस ने उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा है।
बिहार कांग्रेस विधायक दल के नेता सदानंद सिंह कहते हैं कि वे अभी भी चाहेंगे कि महागठबंधन एक रहे, क्योंकि यह समय की मांग है, अन्यथा अगले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस समेत देश के दूसरे गैर भाजपा दलों को बड़ा नुकसान उठना पड़ेगा।