एक लयबद्धता है, जो तुम्हारे भीतर घटती है। उसी लयबद्धता में तुम झुक जाते हो और उस विराट की लयबद्धता के साथ एक हो जाते हो। तुम्हारी वीणा, विराट की वीणा के साथ संगत देने लगती है। जुगलबंदी हो जाती है। तुममें और विराट की वीणा में जरा भी फासला नहीं रह जाता, भेद नहीं रह जाता, अंतराल नहीं रह जाता। प्रार्थना क्या है? क्या प्रार्थना केवल अपने ही लिए है? प्रार्थना अबूझ घटना है। ध्यान समझा जा सकता है, समझाया जा सकता है। प्रार्थना न तो समझाई जा सकती है, न समझी जा सकती है। समझ के हाथ प्रार्थना तक नहीं पहुंचते। विचार के पंख प्रार्थना के आकाश तक उड़ान नहीं भरते। बोली जा सके, कही जा सके, प्रार्थना ऐसी वस्तु नहीं है। प्रार्थना है प्रेम। और प्रेम सदा से अबूझ रहा है। प्रार्थना है हृदय का उद्गार। और हृदय के पास कोई तर्क नहीं। हृदय के पास वस्तुतः कोई भाषा भी नहीं। हृदय के पास मौन ही भाषा है। बोले कि प्रार्थना झूठ हुई। प्रार्थना चुप्पी के अतिरिक्त और कोई भाषा नहीं जानती। प्रार्थना है मौन में झुक जाना। प्रार्थना है, समर्पण। प्रार्थना है इस बात की घोषणा कि मैं नहीं हूं, तू है। मैं नहीं हूं परमात्मा है। प्रार्थना परमात्मा से कुछ मांग नहीं है, क्योंकि मांग में मैं मौजूद ही होता है। मैं न हो तो मांग किसकी, मांग कैसी? मैं ही मांगता है। उसकी मांगों का कोई अंत नहीं है। जितना मिले, उतना ही ज्यादा मांगता है। जहां मैं नहीं, मैं की मांग नहीं, वहीं तुम सम्राट हो गए। प्रार्थना सम्राट के हृदय से उठा हुआ स्वर है- मौन का स्वर, संगीत का स्वर। प्रार्थना एक लयबद्धता है। तुम्हारे पैर परमात्मा के साथ पड़ने लगते हैं। तुम उसके साथ नाचते हो, उसके साथ मस्त होते हो, उसके रस में डूबते हो। कभी ऐसे क्षण तुम्हारे सामने आ जाते हैं, जब तुम अवाक होते हो- वे प्रार्थना के क्षण हैं। उन अवाक क्षणों में तुम हिंदू नहीं होते और मुसलमान नहीं होते और ईसाई नहीं होते- सिर्फ अवाक होते हो। सुबह उगते हुए सूरज को देख कर या सफेद बगुलों की कतार को उड़ते देख कर या हवा में तैरती हुई फूलों की गंध को अनुभव करके या रात आकाश को तारों से भरा देख कर अवाक नहीं हुए हो? वही प्रार्थना है। क्षण भर को निस्तब्ध नहीं हुए हो? वही प्रार्थना है। कोयल कुहूकृकुहू करके गीत गाने लगी है भरी दोपहरी में, एक क्षण को तुम्हारे विचारों की शृंखला नहीं टूट गई है? एक क्षण को तुम्हारी धड़कन नहीं रुक गई है? उस कुहू-कुहू ने एक क्षण को तुम्हें भर नहीं दिया है- आपूर आकंठ? तुम्हें डुबा नहीं दिया है- जैसे बाढ़ आ गई हो किसी अज्ञात लोक से! वही प्रार्थना है। किसी मित्र का हाथ अपने हाथ में लेकर बैठे हो और वाणी खो गई हो, बोलने को शब्द न मिलते हों, आंख से आंसू झरते हों- वहीं प्रार्थना है। रोओ, हंसो, गाओ, नाचो, पुकारो, पर प्रार्थना के लिए कोई शब्द नहीं, क्योंकि प्रार्थना शब्दातीत है। रोओ, गाओ, नाचो, हंसो, आनंदमग्न हो पुकारो, झुको, गिरो, असहाय हो जाओ, अवाक हो जाओ, विमुग्ध बनो, तन्मय हो जाओ, पर प्रार्थना के लिए कोई शब्द नहीं। इन सब में प्रार्थना चुक नहीं जाती। इन सबसे सिर्फ इशारे होते हैं। प्रार्थना इन सबसे बड़ी है। प्रार्थना इतनी विराट है, जितना विराट आकाश है। प्रार्थना उतनी ही बड़ी है, जितना बड़ा परमात्मा है। प्रार्थना परमात्मा से छोटी नहीं है, क्योंकि प्रार्थना के क्षण में तुम परमात्मा के साथ एक हो जाते हो। प्रार्थना का क्षण सेतु है। जोड़ता है। तुम खो गए। भक्त नहीं बचता। जब भक्ति परिपूर्ण होती है, भक्त नहीं बचता। और जब तक भक्त बचता है, तब तक भक्ति परिपूर्ण नहीं है। शांडिल्य ने इसी को भक्ति के दो रूप कहा। एक को गौणी-भक्ति कहा और एक को पराभक्ति कहा। जब तक भक्त बचता है, तब तक गौणी-भक्ति। नाममात्र को भक्ति। भक्ति जैसी लगती है, इसलिए भक्ति कहा, मगर भक्ति है नहीं। अभी भक्त मौजूद है, भक्ति कहां? जब भक्त खो गया, तब पराभक्ति। तब असली भक्ति, भगवान ही बचा! तो प्रार्थना उतनी ही बड़ी है, जितना परमात्मा है। प्रार्थना बड़ी है, सबको समा लेती है, किसी एक घटना में सीमित नहीं है। कभी सन्नाटा हो जाएगा इतना कि हाथ-पैर भी न हिलेंगे। और कभी ऐसी ऊर्जा उतरेगी कि नाचे बिना नहीं चलेगा। कभी बुद्ध की तरह बैठना हो जाए, तो बैठ जाना। कभी मीरा की तरह नाचना हो जाए, तो नाच लेना। चेष्टा करके नाचना भी मत, चेष्टा करके बैठना भी मत। जब तक कृत्य है, तब तक प्रार्थना नहीं, क्योंकि कृत्य में कर्ता है। और कर्ता में अहंकार है। तुम सिर्फ खुल जाना। जैसे सुबह की हवा आती है और फूल को नचा जाती है। और सुबह का सूरज उगता है और फूल की पंखुड़ियां खिल जाती हैं- बस ऐसे! तुम उपलब्ध रहना। परमात्मा कुछ करना चाहे तो होने देना, कुछ न करना। चाहे तो चुपचाप जैसे हो, वैसे ही रह जाना। जल्दी ही तुम्हें प्रार्थना का स्वाद लगने लगेगा।
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