नई दिल्ली। दिल्ली नगर निगम के चुनाव से कुछ महीने पहले दिल्ली प्रदेश भाजपा अध्यक्ष की जिम्मेदारी संभालने वाले मनोज तिवारी की राह चुनौतियों से भरा हुआ है। उन्हें सिर्फ विरोधी पार्टियों को जवाब नहीं देना है, बल्कि संगठन की गुटबाजी को रोककर सभी धड़े को साथ लेकर कार्यकर्ताओं को भी सक्रिय करना होगा। ऐसा करने में वे अगर सफल हो जाते हैं तभी नगर निगमों के चुनाव में भाजपा की वापसी हो सकेगी।
भाजपा ने पहली बार किसी पूर्वांचल के नेता को यह जिम्मेदारी सौंपी है। पार्टी हाई कमान के लिए इनके नाम पर अंतिम निर्णय लेना आसान नहीं था क्योंकि विरोधी इन्हें राजनीति का नया खिलाड़ी बताते हुए विरोध कर रहे थे। विरोधियों का तर्क है कि तिवारी को न तो संगठन का अनुभव है और न ही दिल्ली में काम करने का।
उल्लेखनीय है कि 2009 में इन्होंने समाजवादी पार्टी के टिकट पर गोरखपुर से लोकसभा चुनाव तो लड़ा था लेकिन इनकी सक्रिय राजनीति की शुरुआत 2014 में भाजपा में शामिल होने और उत्तर पूर्वी दिल्ली से सांसद चुने जाने के बाद हुई है। अमूमन किसी पंजाबी या वैश्य नेता को ही दिल्ली भाजपा की कमान सौंपी जाती रही है।
पहली बार इस परंपरा को तोड़ते हुए 2014 में सतीश उपाध्याय को यह जिम्मेदारी दी गई थी। मनोज तिवारी भी यह बात स्वीकार करते हैं। उनका कहना है कि राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने उन जैसे नए कार्यकर्ता पर विश्वास कर इतनी बड़ी जिम्मेदारी दी है जिस पर खरा उतरने का हरसंभव प्रयास करेंगे।
प्रत्येक वरिष्ठ नेता के अनुभव से कुछ न कुछ सीखेंगे। नए अध्यक्ष के लिए प्रदेश कार्यकारिणी तय करना भी आसान नहीं होगा। किसी भी फेरबदल से गुटबाजी को हवा मिल सकती है, इसलिए अब देखना होगा कि तिवारी अपनी टीम में नए चेहरों को लाएंगे या फिर उपाध्याय की टीम के साथ ही काम करेंगे।
इसके साथ ही उन्हें पार्टी के परंपरागत समर्थक पंजाबी व वैश्य के बीच अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए काम करना होगा। नगर निगमों की कार्यप्रणाली को लेकर भी पार्टी हाईकमान चिंतित हैं। जनता के अधिकांश काम निगम के माध्यम से होते हैं। तीनों निगमों के काम से न तो दिल्ली के लोग खुश हैं और न ही पार्टी हाईकमान। ऐसे में चुनाव से पहले निगमों की छवि को बदलना भी नए प्रदेश अध्यक्ष के लिए आसान नहीं है।