नई दिल्ली। हिंदुस्तान के इतिहास पर आज कालिख पोती जा रही है। जिस धरती पर ‘जय जवान-जय किसान’ का नारा दिया गया था। आज वही धरती किसानों के रक्त से लहूलूहान हो चुकी है। आज की दो प्रमुख घटनाएं एक दूसरे से बिल्कुल अलग हैं लेकिन आज के वक्त में इनकी साथ चर्चा किए जाने के दोनों मामलों में एक समानता है। दोनों ही घटनाएं सरकार के दावों और जमीनी वास्तविकता की पोल खोल रही हैं।
मध्य प्रदेश के मंसौर में प्रदर्शन कर रहे किसानों पर गोलियां चलाईं गई। अपनी मांगों को लेकर एक जुट हुए निहत्थे किसानों पर शिवराज सरकार की तानाशाही बंदूक से गोलियां निकली और 3 किसानों को मौत की दहलीज पर लाकर पटक दिया। ये सिर्फ 3 किसानों की मौत नहीं हुई है बल्कि 3 परिवारों की आवाज को कुचला गया है। 3 किसानों के गांव तक अपनी तानाशाही का संदेश पहुंचाया गया है। एक तरफ तो बीजेपी खुद को किसानों का हितैषी बताने का एक भी मौंका नहीं चुकती तो दूसरी तरफ बेबस और कमजोर किसानों को बंदूक के निशाने पर लेती है। सरकार का ये दोहरा रवैया सवालों के घेरे में खड़ा हो जाता है।
अब दूसरे पक्ष की बात करते हैं। देश का करीब 9 हजार करोड़ रुपये लेकर भगौड़ा विजय माल्या सरकार को नजर नहीं आता है। उसे पकड़ने के दावे तो किए जाते हैं लेकिन उन दावों पर गंभीरता दिखाना सरकार जरूरी नहीं समझती है। लंदन में खुले आम विजय माल्या दिखाई देता है। वो कैमरों में नजर आता है, वो सुर्खियों में चमकता है लेकिन सरकार के लिए माल्या उस बोतल में बंद जिन्न की तरह हो गया है जिसे सरकार बाहर निकालने से ही डर रही है। माल्या सिर्फ दिखाई नहीं देता है बल्कि देश पर हास्यापद टिप्पणी करके सिस्टम को चिढ़ा भी रहा है। केंद्र की बीजेपी सरकार इस पर एक्शन लेने के बजाय, पूरे मामले पर लीपा-पोती करने में जुटी हैं।
अब इन दोनों मामलों को एक धरातल पर रखकर समानता के चश्मे से देखिए, सब कुछ साफ साफ दिखाई देने लगेगा। देश को अन्न देने वाले किसानों और एशगाहों में रहने वाले सेठ धन्नाओं के प्रति केंद्र और राज्य की सरकारों का क्या रवैया है। अगर विजय माल्या देश का हजारों करोड़ गबन करके लंदन में आराम फरमा सकता है तो किसानों को शांति प्रिय तरीके से प्रदर्शन करने की भी आजादी क्यों नहीं।