कठपुतली का उजड़ना

एक बसी-बसाई बस्ती जिसके सपने थे, जिसके अरमान थे-अपने सपनों और अरमानों के साथ उजाड़ दी गई. वह न्यू पटेल नगर के पास का कठपुतली मोहल्ला है, जहां के लोग पड़ोसियों की दयानतदारी पर जिंदा हैं.
न उनके पास खाने को अनाज है, न चूल्हे हैं, न खाना बनाने के दीगर इंतजाम हैं, न हारी-बीमारी में काम आने वाली दवाएं हैं. पड़ोसी उनकी सबसे बड़ी ताकत हैं जो इस आड़े वक्त में उनकी मदद को इसलिए आए हैं क्योंकि उनसे उनकी रब्त-जब्त और बावस्तगी का सिलसिला बरसों पुराना है. उनके घर ढाह दिये गए क्योंकि यह अतिक्रमण का मामला था, क्योंकि उन्होंने डीडीए की जमीन कब्जा ली थी, क्योंकि अदालत का आदेश था कि वह जमीन अतिक्रमणमुक्त कराओ. डीडीए का मामला केजरीवाल सरकार का मामला नहीं है. उसकी सदारत एलजी करते हैं जो केंद्र के नुमाइंदे हैं.
सवाल यह नहीं है कि इस मामले में कोर्ट के फैसले का पूरी ईमानदारी से अनुपालन हुआ या नहीं. सवाल यह है कि जो लोग अपने घरों से बेदखल किए गए, जो ठंड की रातें गलियों में तंबू डाल कर बिता रहे हैं, जो रतजगा कर रहे हैं-उन्हें विस्थापित करने के पहले जो व्यवस्था की जानी चाहिए, वह प्रशासनिक स्तर पर हुई या नहीं? हुई तो कैसी हुई? डीडीए की दलील है कि व्यवस्था हुई और माकूल व्यवस्था हुई. माकूल व्यवस्था होती तो उन्हें गलियों में तंबू डाल कर क्यों रहना पड़ता? जाहिर है, व्यवस्था हुई होगी लेकिन आधा तीतर-आधा बटेर वाली.
इस तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि जिन्हें बेदखल किया गया, वे आतंकी नहीं हैं. वे इस देश के नागरिक हैं, इस सचल समाज की जीवंत इकाई हैं. अपना घर न होना कोई गुनाह नहीं होता है. यह दिक्कत उस हर किसी से टकरा सकती है जिसके पास सर छुपाने को कोई सायबान नहीं है. लेकिन जिस अंदाज में और जिस बर्बरता के साथ उन्हें बेदखल किया गया, वह अमानवीय जरूर लगता है.
अदालत के फैसले के आलोक में आपको ‘ क्रौंच वध’ करने की इजाजत किसने दी? वह भी बिना माकूल इंतजाम किए? आप किसी के घर उजाड़ दें, उसके जीने का सरंजाम छीन लें, मां को बेटी से और बेटी को बाप से अलग कर दें, आप इतने मुस्तैद हों गोया कोई आतंकी हमला हो गया हो-यह बदअमली नहीं तो और क्या है?

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