नई दिल्ली। भारत अलहदा है, क्योंकि यहां पर्वो और त्यौहारों का उत्सव चलता रहता है। न जाने कितने पर्व और त्यौहार। हर जबान, क्षेत्र और समुदाय के अलग-अलग। कुछ सबके। दिल्ली, देश की राजधानी, जहां हर ओर हर पर्व की खूबसूरती दिखती है। कहा जाता है कि भारत को समझना है तो दिल्ली को समझें। इसे महसूस करें तो पूरे देश का महसूस कर लेंगे।
नवरात्र, दशहरा और दीपावली के बाद प्रकृति के संरक्षण और उसके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने का महापर्व छठ। यमुना घाटों पर डूबते और फिर उगते सूरज को अर्घ्य देते देखना अद्भुत और अविस्मरणीय। उपेक्षा और उदासीनता से आहत यमुना भी यह दृश्य देखकर जरूर भावुक हुई होंगी। पूर्वाचलियों ने मलिन होने के बावजूद उन्हें पूरी श्रद्धा से आत्मसात किया। प्रकृति की इस पूजा में सब साथ आएं तो यमुना की सफाई को लेकर कोई सियासत तो नहीं होगी। कसक सिर्फ यमुना से आम लोगों के जुड़ने की ही तो है।
छठ महापर्व पर लाखों कदम यमुना की ओर बढ़े चले आए। अमीर-गरीब का बंटवारा नहीं था। घाट पर सब एकाकार। वैश्विक शहर बनने की ओर बढ़ रही दिल्ली की आधुनिक पहचान और देश की सनातन परंपरा व संस्कृति यमुना किनारे जैसे आपस में मिल रहे थे। यह दृश्य संगम सरीखा ही तो था और यह दृश्य आश्वस्त कर रहा था कि युवा अपनी परंपरा, संस्कृति यहां तक कि अपने अस्तित्व को लेकर कितने सजग हैं। कम से कम इस मोर्चे पर किसी को चिंतित होने की जरूरत नहीं है। उसमें भी जब बात छठ की हो तो भक्ति का आवेग तटबंध तोड़ देने को व्याकुल हो जाता है।
छठ पूजा जैसे जीवन ही है, रगों में बसा है। यह पर्व अपनों के बीच न मना पाने वाले न जाने कितनों के दिल में एक हूक उठ रही थी। जैसे, कोई खींच रहा है। वे उड़ जाना चाहते थे अपने घर, क्योंकि इस पर्व ने परिवार, दोस्त, समाज और प्रकृति को एक सूत्र में पिरोया है। बचपन के सारे दृश्य आंखों के सामने तैर रहे थे। पिता के आदेश, भाई के सहयोग के साथ साथ दोस्तों-सहेलियों के साथ छठ पूजा की तैयारी में हंसी ठिठोली तो पूरी श्रद्धा और पवित्रता के साथ मां के साथ चूल्हे में प्रसाद बनाने का सहयोग मन में कचोट पैदा कर रहा था।
उधर, छठ गीतों के बीच अगरबत्ती और फूलों से यमुना का आइटीओ घाट और दिल्ली के न जाने कितने छोटे-बडे़ घाट भक्ति की खुशबू से गमक रहे थे। मन में एक ही भाव। भावुकता से भरा हुआ। इस पर्व का इंतजार कब से था। अस्ताचलगामी सूरज को अर्घ्य देने के बाद घाट पर ही एकटक सूरज के उगने का इंतजार। जब इंतजार खत्म हुआ तो आंखें डबडबा रहीं थीं। अर्घ्य देते हुए जैसे यह सूरज हाथ से फिसला जा रहा हो, अब अगले साल का इंतजार।