एक स्वयंसेवक का राष्ट्रपति बनना

  • प्रवीण गुगनानी

यूं तो भारत में राष्ट्रपति भवन का अपना एक सुसंस्कृत, विद्वतापूर्ण व गरिमामय इतिहास रहा है (कांग्रेस के तीन चयन — फखरुद्दीन अली अहमद, ज्ञानी जैलसिंह व प्रतिभा पाटिल के अपवाद छोड़ देवें), भारत के राष्ट्रपतियों व उपराष्ट्रपतियों की इस गौरवशाली परंपरा में अब एक स्वयंसेवक के राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति बनने की नई अनूठी कड़ी जुड़ने जा रही है। राष्ट्रपति चुनाव के परिणाम आनें के साथ ही दिल्ली की रायसीना पहाड़ी पर स्थित राष्ट्रपति भवन में राष्ट्रपति के रूप में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के एक स्वयंसेवक रामनाथ कोविंद का प्रवेश तय हो गया है। उधर उपराष्ट्रपति पद पर भी एक स्वयंसेवक वेंकैया नायडू का निर्वाचित होना तय है। भारत के प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद और इस देश में तीस वर्षों पश्चात एक पूर्ण बहुमत धारी सरकार बनने के बाद और आठ सौ वर्षों में पहली हिंदुत्ववादी सरकार बनने के बाद के इस राजनैतिक अध्याय में निश्चित ही कई सकारात्मक परिवर्तन और भी दिखाई देनें वाले हैं। देश भर के सैकड़ों हजारों प्रमुखतम राजनैतिक, संवैधानिक, सामजिक व नागरिक प्रतिष्ठानों, अधिष्ठानों व संस्थानों में स्वयंसेवकों का यह नया बोलबाला भारत की नई परिभाषा रच रहा है। इस अवसर पर प्रसिद्ध संघ विचारक एवं दलित विमर्श के मनीषी रमेशजी पतंगे के एक आलेख में लिखी कुछ पंक्तिया स्मरण आती हैं, उन्होंने लंदन के विश्वप्रसिद्ध समाचार पत्र द गार्डियन के सम्पादकीय की चर्चा लिखी है। द गार्डियन ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की चुनावी जीत पर लिखा कि “आज 18 मई 2014 का दिन वह दिन है जब अंग्रेजों ने वस्तुतः भारत छोड़ दिया है। क्योंकि जिस पद्धति से अंग्रेजों ने भारत पर शासन किया था, भारत में स्वातंङ्क्षोत्तर भी करीब करीब वैसा ही शासन चलता रहा। इस कालखंड का अंत नरेंद्र मोदी की जीत ने किया है। स्वतंत्रता के बाद भारत ने कांग्रेस के राज में अंग्रेजी राज का ही अलग अलग तरीके से विस्तार होता रहा। द गार्डियन ने आगे लिखा कि मई 2014 में भारत से अंग्रेजी शासन समाप्त हुआ अर्थात अंगेजी आचार विचारों के अनुसार, अंग्रेजी मूल्यों के अनुसार चलने वाली शासन पद्धति की समाप्ति और अब भारतीय पद्धति, भारतीय मूल्य, भारतीय आचार—विचार, भारतीय आदर्श के अनुसार शासनकाल का समय प्रारम्भ हुआ है। ऐसा नहीं है कि भारत में यह प्रथम सत्ता परिवर्तन है, सत्ता परिवर्तन मोरारजी भाई देसाई, वीपी सिंह, देवेगौड़ा, गुजराल के समय भी हुआ किन्तु उस समय भिन्न—भिन्न कारणों से शासन का दृष्टिकोण पूर्ववत ही रहा। अटलबिहारी वाजपेयी के समय भी सत्ता का दृष्टिकोण नहीं बदल पाया क्योंकि अटल जी की सरकार एक अल्पमत व विभिन्न विचारों से बनी पार्टियों की बैसाखी पर चल रही थी, अतः इस सरकार का शीर्ष व शेष आकार कुछ जुदा—जुदा सा था। अब नरेंद्र मोदी को पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ है व उन्हें सहयोगी दल की बैसाखियों की भी आवश्यकता नहीं है अतः यह समय भारत में केवल सत्ता परिवर्तन का नहीं अपितु वैचारिक आधार के बदलाव का समय है!! अब देश के विभिन्न प्रमुख पदों पर स्वयंसेवकों के मनोनयन के सुखद परिणाम हमें भविष्य में समय समय पर देखनें को मिलते रहेंगे। स्वयंसेवक होनें का भाव ऐसे ही सिर चढ़ कर बोलता है। प्रधानमंत्री रहते हुए अटलबिहारी वाजपेयी ने अमेरिका के स्टेटिन आयलैंड में भाषण देते हुए कहा था कि मैं पहले स्वयंसेवक हूँ और फिर भारत का गौरवशाली प्रधानमंत्री। वस्तुतः एक स्वयंसेवक में यह भाव उस प्रार्थना से आ जाता है जिसे वह प्रतिदिन शाखा में सस्वर पाठ करता है और जो “नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे” से प्रारम्भ होकर “समर्था भवत्वाशिषा ते भृशम्” पर भारत माता की जय के साथ समाप्त होती है। आप स्मरण करें वह क्षण जब एक स्वयंसेवक नरेंद्र मोदी ने संसद की पेढ़ी को माथा टेक कर प्रथम प्रवेश किया व संसद को लोकतंत्र का मंदिर बना दिया था।
स्वयंसेवक का व्यक्तित्व जिस संगठन से डिजाइन होकर आता हैं वह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ एक सामाजिक, सांस्कृतिक संगठन के रूप में विगत नब्बे वर्षों से राष्ट्र में जागृत, चैतन्य और ज्योतिर्मय भूमिका निर्वहन करता चला आ रहा है। आजकल समाज में सामान्य रूप से कहा जाता है कि “इस संगठन को समझ पाना टेढ़ी खीर ही है।” संघ कब, क्या, क्यों, कैसे, कहाँ, कितना बोलेगा, दिखेगा और करेगा यह एक अबूझ पहेली ही है। वस्तुस्थिति यह है कि संघ अपनें स्वाभाविक या यूं कहें सरल, सहज, सुबोध रूप में अपनें कार्यों से समाज में व्याप्त रहता है। संघ कितनी अबूझ पहेली है इसका अल्प परिचय उस घटना से मिलता है जब सरसंघचालक मोहनरावजी भागवत ने गत लोकसभा चुनाव अभियान के चरम समय में और सर्वाधिक संवेदनशील दौर में यह दिया था कि संघ के कार्यकर्ता भाजपा का कार्य करते हुए अपनी मर्यादा में रहें। स्वयंसेवक अपनें सांस्कृतिक और सामाजिक यज्ञ में संलग्न रहें “नमो नमो करना एक स्वयंसेवक का काम नहीं है।” जब संघ के सर्वोच्च नेता ने यह कहा था तब पूरा राजनैतिक जगत मूंह खोले अवाक रह गया था क्योंकि सभी जानते थे कि प्रधानमंत्री के प्रत्याशी के रूप में नरेंद्र मोदी संघ की पहली पसंद और प्राथमिकता में है। संघ और भाजपा की दृष्टि से 2014 के सर्वाधिक महत्वपूर्ण और महत्वाकांक्षी हो गए लोकसभा चुनाव के चरम समय पर ऐसी संघ प्रमुख का ऐसी बात कह देना यह दर्शाता है कि केंद्र की सत्ता और प्रधानमंत्री का पद भी वह तत्व नहीं है जिसके लिए संघ अपनी सांगठनिक और चारित्रिक विशेषताओं को त्याग दे। हां, संघ ऐसा ही है!! सब कुछ करते हुए कुछ भी न करना, संलिप्तता में सराबोर रहकर निर्लिप्त रहना, सर्वव्याप्त रहकर अज्ञात रहना, सस्वर सर्वस्व का गीत गातें हुए सन्यासियों की भांति चुप्पी लगाएं रहना, ये सब संघ व स्वयंसेवक के ही गुण—लक्षण हैं। आज जब इस देश के सर्वोच्च पद पर संघ का एक स्वयंसेवक विराजमान हो गया है तब स्वाभाविक ही है कि लोग आरएसएस के प्राण तत्व यानि “स्वयंसेवक” की अवधारणा को समझें और जानें। संघ के भगवा ध्वज के गुरुत्व से प्राप्त स्वयंसेवकत्व की पूंजी के कारण ही विरोधी उनसें घबरातें और धराशायी होतें हैं। गुरु गोलवलकर जी ने 16 मार्च 1954 को संघ और स्वयंसेवक को परिभाषित करते हुए कहा था— “अगर हम यह मानते हैं कि हम किसी संगठन के सदस्य हैं और हम उसके अनुशासन को स्वीकार करते हैं तब हम अपने जीवन का रास्ता चुनने का अधिकार संगठन को समर्पित कर देते हैं। हमें वही करना है जो हमसे कहा जाए। अगर कबड्डी खेलने को कहा जाए तो कबड्डी खेलो, अगर बैठक करने को कहा जाए तो बैठक करो। हमारे कुछ साथियों से राजनीति के क्षेत्र में काम करने के लिए कहा गया है। इसका अर्थ यह नहीं है कि उन्हें राजनीति में कोई रूचि है। अगर उन्हें आज राजनीति से बाहर आने को कहा जाए तो भी कोई आपत्ति नहीं होगी। उनकी मर्जी का कोई महत्व ही नहीं है।” (श्री गुरूजी समग्र र्दशन, खण्ड 3 पृष्ठ 32) हां यह भी एक तथ्य है कि गुरूजी की इन पंक्तियों का अर्थ कहां, कितना व कैसा निकालना है स्वयंसेवक को यह तय करने का विशिष्ट विवेक संघ से घुट्टी में ही मिल जाता है।

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