”जिंदगी कुछ यूं ही’’ —समीक्षात्मक अनुशीलन

12313572_558488627637687_6100436599663090176_n— डॉ. किरण मिश्रा
जिन्दगी जोड़ — घटाकर सवाचार — साढ़े चार अक्षरों का एक शब्द है। लेकिन एक बार इसको परिभाषित करने चल पड़िए तो कही जीवन चलने का नाम है तो कही ठहर जाने का, कहीं जीवन हसने का नाम कही आंसू में जीवन है। जीवन की परिभाषा गुरु माहिमा से कतई कम नहीं। समस्त पृथ्वी को कागज बनाकर, जंगलो को लेखनी और समुद को स्याही बनाकर भी जिन्दगी की परिभाषा नहीं लिखी जा सकती।
जिन्दगी की यात्रा जिन्दगी से जिन्दगी भर की है। इस यात्रा में कुछ घाटियाँ है दोषी किन्तु सुन्दर ण् कुछ सड़क है संकरी, किन्तु निर्दाेष। इन्ही अनुभव को अपने लहजे में कहते है सुधाकर पाठक की पुस्तक “जिन्दगी… कुछ यूं ही’’
पुस्तक के लेखन में लेखक बहुसंख्यक स्वयं को पाता है यही कवि के लेखन की सार्थकता है। विषय वस्तु के हिसाब से पुस्तक अहम है, कई जगह वैविधता दृष्टिगोचर होती है। जीवन और जगत के हर पक्षो के लिए हर भाव — अभाव से गुजरने का अदभुत साहित्यिक प्रयास है।
जिसमे सिर्फ चलने का गुमान होता है।
न कोई मंजिल है जिन्दगी…
शेष रह जाती है बस डोर उलझी—उलझी सी…
बिल्कुल जिन्दगी की तरह कोई सिरा…
पूरा जीवन बीत जाता है…
कोई किसी का पूरक नहीं…
सब मुंह देखी बात करते है…
झकझोर कर जगा देता है कोई,
सामने होता है हूबहू मेरे शक्ल का एक शख्स…
कवि अत्यंत सूक्ष्म अनुभूति प्रण है। उसकी अनुभूति एवं संवेदना तीव्र है जो कई रूपों में व्यक्त होती है।
रिश्तों की ठंडक और वेअसर छुवन…
हद्धयघात से भी ज्यादा घातक होते है
इनका आघात
रचनाओं में कुछ जगहों पर दार्शनिक प्रभाव नजर आता है, कवि सुधाकर अपने ढंग की दार्शनिक है। उनमे तात्विक और आतंरिक विभेद को पहचानने का गुण है।

यथा
पूरा जीवन
अपनों के सपनों को
पूरा करने में
आहूत हो गया
और एक जीता — जागता इन्सान
बस, मशीन बन कर रह गया।
सज गई कर्तव्यो की बेदी और हवन कुंड……
कवि अपनी रचनाओं में आधुनिक सभ्यता के दुष्परिणामों को खण्डित कर भाषा की आकंकारिकता और चित्रात्मकता द्वारा यथार्थ और प्रकृति के पास जा खड़ा होते है। यहां भी कवि का सूक्ष्म अनुभव दृष्टिगोसर होता है।
पहले एक टायर
दौड़ता था
अब मेरी कार के
चार चार टायर
खुद दौड़ते है
पहले गति थी
प्रति नहीं थी
अब प्रगति है
पर गति नहीं है
कवि की कल्पना शक्ति अत्यंत विशद, किन्तु संलिष्ट है ,व्यापक और विराट भी है। कवि की अनुभूति एवं विचार दोनों कल्पना की आड़ में छिप जाते हैं।
मिलन की आस में
समाने को आतुर
ऊपर से शांत
पर भीतर से वही तेज बहाव…..
कवि की अनुभूति का सबसे सुन्दर पक्ष है सूक्ष्म होने के साथ उसका स्पष्ट होना।
वे अनूठे सुखद पल
सितार तार — तार झंकार
राग — संगीत — गूँज
अब तक है मेरे अन्तर्मन में…..
आज मन किया
मैं तुम्हें तुम बन कर सोंचूँ…..
प्रेम के पौधे की
पत्तियों में पीलापन
तने में खुरदरापन
कवि का संबंध अंतस से होता है कविता को पढ़कर कवि के स्वभाव का अंदाज लगाना बेहद सरल हो जाता है। यहां भी कवि का मूल स्वभाव सामने आ जाता है। रचना तभी सार्थक होती है जब कवि जो कहना चाहता है उसे वैसे ही पाठक समझे सुधाकार पाठक ऐसे ही कवि है वो कुव्यवस्था पर चोट करते हैं, सीमाओं को चुनौती देता हैं , उन्मुक्त्ता का समर्थन करता हैं। वहा चतुराई से अशिव और कुल्प पक्षों को भी अनुभव से संवारकर भाषा को सजाकर उतार देता हैं। कवि की अभिव्यंजना शक्ति काबिल—ए—तारीफ है। देखें—
साथ ही मिले है
उनके साथ चलने को
कुछ दमघोंटू नियम…
जहां विचरण कर सकूँ
बेरोक — टोक
न पले कोई अंतर्द्वंद
उड़ संकूँ अपने
आकाश में स्वच्छंद…..
अब जान पाया हूँ में कालिदास के
कालिदास बन जाने का मर्म
बस प्रेरणा चाहिए
कुछ करने के लिए…..
मेरी सिद्धि भी तुम
साध्य भी तुम
राह भी तुम और
लक्ष्य भी तुम
आज के दौर में जब लेखन व्यवसाय बन चुका है। विषय— वस्तु को उत्पाद की कसौटी पर कसा जाता है। लेकिन मेरा मत है कि कविता पलाश की तरह जंगली है।
पलाश स्वेच्छा से उगता है, उसकी खेती नहीं होती, जंगली होता है लेकिन ब्राहमण वर्ण का वृक्ष कहा जाता है। सतो गुण — रजो गुण और प्राकृतिक गुण धारक होता है। कविता भी ऐसी ही होती है, पलाश की तरह, अनिष्ट निवारक इष्टकारक पलाश है उसकी वृति वैसी ही है सुधाकार जी की कविता।
कवि अपनी बात को ईमानदारी से कहने और पाठक वर्ग तक पहुंचाने में सफल रहा है। अज्ञेय जी की बात याद आ रही है कि अच्छा लेखन पढ़कर आप लेखक के प्रति कठोर नहीं रह पाएंगे सुधाकार जी के साथ भी ऐसा ही है।
जिन्दगी को “यू ही “अंदाज में उतारने के भागवत प्रयास को बधाई और शुभकामनाएं।

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