राजधानी दिल्ली में सर्दी के मौसम में नए साल की शुरुआत के साथ हर साल कुछ चीजें तय हो जाती हैं। जैसे जबरदस्त ठंड पड़ेगी, घना कोहरा छाने के कारण हवाई उड़ानें व ट्रेनें रद्द होगी और तमाम पत्रकार दो जाट नेताओं के घर दोपहर की धूप सेंकते हुए बढिया खाने का मजा लेंगे। हर साल दिल्ली के पूर्व सांसद व कांग्रेसी नेता सज्जन कुमार व हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा मकर संक्रांति के आसपास अपने पत्रकार मित्रों को दोपहर के भोजन पर आमंत्रित करते हैं। इसकी शुरुआत कई दशक पहले सज्जन कुमार ने की थी जब वह दिल्ली के सांसद हुआ करते थे। उनके इस भोज की खासियत यह थी कि इसमें पहली बार हम लोगों को दिल्ली के तय खाने जैसे दाल मखनी, शाही पनीर से दूर कर कुछ बेहद स्वादिष्ट चीजें खाने की मिलनी शुरू हुईं। आयोजन स्थल पर पहुचते ही गाजर, मूली अमरूद, तले हुए हरे मटर, छाछ से स्वागत किया जाता और खाने में मक्के—बाजरे की रोटी, गुड़ मक्खन से लेकर इमरती व चटनी सरीखी चीजें होती। सच कहें तो पहली बार मैंने सज्जन कुमार के यहां ही महिलाओं को गरमा गर्म फूली हुई रोटियां सेकते हुए देखा था। उनकी देखा—देखी राजेश पायलट ने भी ऐसे ही भोज की शुरुआत की। मगर जब वे मंत्री नहीं रहे तो इसका आयोजन बंद हो गया। सज्जन कुमार के भोज की सबसे बड़ी खासियत यह है कि वे हर पत्रकार को खुद फोन पर आमंत्रित करते हैं। उसके साथ ही उनके यहां से बहुत बढिया गुलाब रेवड़ी गजक का डब्बा आता है। और फिर भोज स्थल पर हर अतिथि को मान—सम्मान के साथ दरवाजे से लेकर आते हैं व आग्रह करके लोगों से विभिन्न चीजें चखने, खाने का अनुरोध करते हैं। इस बार भी वहां जाना हुआ।
शायद वे उन चंद नेताओं (इंसानों) में से एक हैं जो कि व्यक्ति के साथ संबंध बनाते समय यह नहीं सोचते हैं कि वह उनके किसी काम आ पाएगा या नहीं। जब वह सांसद थे तो दीपावली पर बढिया देसी घी और बासमती चावल भेजा करते थे। उन पर चाहे कितने भी संकट आए पर उन्होंने कभी भी इस आयोजन को रोका नहीं। इस बार सज्जन कुमार के भाई रमेश और बेटा जगप्रवेश भी भोज के दौरान मौजूद रहे। उनका बेटा अपने पिता की हूबहू प्रतिकृति लगता है। दुबला पतला, लंबा और बेहद विनम्र। मेहमानबाजी का तो जवाब ही नहीं। गुनगुनी धूप में बढिया भोजन और विचार उत्तेजक राजनीतिक चर्चा को देखते हुए यह कह सकता हूं कि साल की शुरुआत बहुत अच्छी रही। नया इंडिया को ले कर कुछ लोग अकेले में धीरे से पूछ लेते थे कि आखिर हो क्या गया है। अभी तो इस सरकार का आधा कार्यकाल बाकी है फिर भी ठोक रहे हैं। अगले दिन हम लोग भूपिंदर सिंह हुड्डा के यहां आमंत्रित थे। उनको पिछले 10—12 साल से जानता हूं। हम लोग उनके घर पर अक्सर बढिया खाने का आनंद लेते आए थे। मेरा मानना है कि इस बढिया खाने और उनकी शानदार मेहमाननवाजी में हमारी भाभीजी आशा हुड्डा की बहुत बड़ी भूमिका रही है। वे पहले भी खाने के समय हम लोगों को खाना खाए बिना नहीं आने देती थी। इस परिवार की एक खासियत यह है कि यह लोग सत्ता में हो या बाहर इनके स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं देखने को मिलता है। सबसे बेहद सहजता से मिलते हैं। कहीं कोई औपचारिकता नजर नहीं आती है। जन संपर्क के मामले में भाभीजी का जवाब ही नहीं। इस बार दीपेंद्र भी काफी सक्रिय दिखाई दिए। असल में इस आयोजन के राजनीतिक मायने भी निकाले जाते हैं। खासतौर से दिल्ली की कांग्रेसी राजनीति में इस आयोजन में आने वाले पत्रकारों और नेताओं की भीड़ से यह अंदाजा लगाया जाता है कि देश व हरियाणा की राजनीति में भूपिंदर सिंह हुड्डा का रेटक्या चल रहा है। यह पार्टी तो मानो राजनीति का सैंसेक्स हो। इसका सफलतापूर्वक आयोजन करने के पीछे जिस एक व्यक्ति को श्रेय दिया जा सकता है वे शिव भाटिया है जोकि पुराने कांग्रेसी हैं व उनके मीडिया सलाहकार रह चुके हैं। वे 10 साल तक हरियाणा भवन के उस सबसे बदनाम कमरे में बैठे रहे जहां से पूर्ववर्ती मीडिया एडवाजर बड़े बेआबरू होकर निकले थे। शिव भाटिया की खासियत यह है कि शिवजी की तरह निर्विकार भाव से सबको आमंत्रित करते हैं। उन लोगों को भी नमक खिलाते हैं जो कि हुड्डा जी की ऐसी तैसी करते आए हैं। वैसे बताते हैं कि इन्हें किसी तरह के धतूरे या नशे का शौक नहीं है। यहां भी तरह—तरह के हरियाणवी व्यंजन परोसे गए। जिस पार्टी के नेता अपने सहयोगियों की जड़ों में मट्ठा डालते हों वहां हुड्डाजी अपने मेहमानों का मट्ठे से स्वागत कर रहे थे। खाने के बाद गरमागरम दूध का भी प्रबंध था हालांकि वे अनेक बार छाछ से जल चुके हैं। पर वो कहावत है ना कि इंसान अपना स्वभाव नहीं बदल पाता है। प्रभु चावला, नीरजाज, हरीश गुप्ता से लेकर वेद प्रताप वैदिक सरीखे वरिष्ठ पत्रकारों के साथ लोग चर्चा का आनंद उठा रहे थे।
राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, जो कि सरलता व सहजता के हिसाब से दूसरे हुड्डा कहे जा सकते हैं दिल्ली विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष योगानंद शास्त्री जी के साथ राजकाज पर चर्चा करने में व्यस्त थे। अगर यहां कहा जाए कि वह स्थल कांग्रेस का मुख्यालय ज्यादा नजर आ रहा था तो सिर्फ इतना ही गलत होगा कि वहां अब इतनी भीड़ नजर नहीं आती है। आनंद शर्मा, कपिल सिब्बल, आरपीएन सिंह, नवीन जिंदल से लेकर जर्नादन द्विवेदी तक मौजूद थे। इस सबके बावजूद लोगों की निगाहें बार—बार कुछ तलाश रही थी। तब तक यह बैठक उस पोर्टफोलियो जैसी लग रही थी जिसमें रिलायंस या इंफोसिस का शेयर न हो। फिर अचानक लोगों की निगाहें मुख्य द्वार की ओर गई तो देखा कि अहमद पटेल चले आ रहे थे। बस उन्हीं की कमी रह गई थी। जिस तरह से कभी कोका कोला ने अपना यह स्लोगन दिया था कि ठंडा मतलब कोका कोला। इसी तरह से सत्ता से बाहर होने के बाद भी कांग्रेस मतलब बाबू भाई (अहमद पटेल) ही माना जाता है। शायद हुड्डाजी और अहमद पटेल के व्यक्तित्व में जो समानताएं हैं उनकी सबसे बड़ी वजह उनका विनम्र होना है। आप अगर अहमद पटेल के यहां जाएं और थोड़ा इंतजार करना पड़ जाए तो भी वे घर में घुसते ही पहला सवाल यही पूछते हैं कि आपने चाय पी? अपने सोफे के पास रखी टाफियां खिलाएंगे। हां बहुत दिनों से भड़ूच की मुंगफली नहीं खिलाई है। मैंने दशकों तक कांग्रेस और भाजपा की रिपोर्टिंग की। जहां मैं आमतौर पर कभी किसी कांग्रेसी से दफ्तर में नहीं मिलता था वहीं यदा कदा ही किसी भाजपा नेता ने मुझे अपने घर पर बुलाया हो। वे एंबुलेंस की तरह पत्रकारों की अहमियत पहचानते हुए उन्हें घर से दूर ही रखते हैं। सिर्फ कृषि मंत्री राधामोहन सिंह इसके अपवाद कहे जा सकते हैं जो कि हर साल मकर संक्रांति को चूड़ा दही के भोज पर आमंत्रित करते हैं और अनुरोध व आग्रह के साथ इसे खिलाते हैं। कांग्रेसियों के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने देश का बड़ा माल खाया है। इसके बावजूद उनके कुछ नेता कभी भी किसी को खिलाने में पीछे नहीं हटे हैं। दिवंगत पूर्णों संगमा ने तो पंचमडी के अधिवेश में हम पत्रकारों के लिए अपनी जेब से बढिया काकटेल डिनर का आयोजन किया था। जम्मू कश्मीर के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रहे दिवंगत गुलाम रसूल कार ने उमा भारती के प्रदर्शन को कवर करने दिल्ली से गए पत्रकारों के खाने पीने का प्रबंध किया था क्योंकि वहां हम लोगों की सुध लेने वाला कोई नहीं था। अपने वित्त मंत्री अरुण जेटली के सत्ता में आने के पहले जब हम पत्रकार उनके अशोक रोड स्थित घर पर जाते थे तो वह हमसे बात करते हुए, अपने सामने रखी प्लेट से अकेले गाजर, मूली उठाकर खाते रहते थे। किसी से गलती से भी नहीं पूछते थे कि क्या वह इसे खाना चाहेगा? खैर अब खाने पीने का समय आ गया है मगर खिलाना तो उनके डीएनए में ही नहीं है। वैसे भी क्या गजब का संयोग है कि खिलाने में माहिर दोनों ही नेता कांग्रेसी जाट हैं। हरियाणा तो पूरे देश का पेट भरता आया है। पर सज्जन कुमार की राजनीतिक फसल को तो पाला मारने में उनकी अपनी ही पार्टी ने कोई कसर नहीं छोड़ी फिर भी संबंधों की फसल लहलहा रही है। हां, चलते समय शिव भाटिया ने गुलाब गजक का थ्ौला पकड़ा दिया। साल में सिर्फ यही दो मौके ऐसे होते हैं जहां भोज खिलाने व गिफ्ट देने के बाद भी बाहर निकलते हुए आयोजक कोई प्रेस रिलीज नहीं थमाता है। बाहर निकलते हुए मैं सोच रहा था कि भाजपा को सत्ता में आए ढाई साल बीत चुका है। इतने राज्यों में उसकी सरकारें हैं। अगले कुछ और महीनों में कुछ नए राज्य भी जुड़ जाएंगे। अब तक तो वह कमाना—खाना सीख चुकी होगी। वैसे भी जब हमारे कट्टर शाकाहारी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने राज्य के मुस्लिम कांग्रेसी अहमद पटेल के घर जबरन खिचड़ी बनवा कर खा सकते हों तो अब तो उन्हें व उनकी पार्टी को खिलाना भी सीख लेना चाहिए।