- लाल बिहारी लाल
आधुनिक हिंदी काव्यजगत में राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना का शंखनाद करने वाले तथा युग चारण नाम से विख्यातवीर रस के कवि रुप में स्थापित हैं। दिनकर जी का जन्म 23 सितम्बर 1908 ई0 को बिहार के तत्कालीन मुंगेर (अब बेगुसराय) जिला के सेमरिया घाट नामक गॉव में हुआ था। इनकी शिक्षा मोकामा घाट के स्कूल तथा पटना विश्व विद्यालय(कालेज)में हुई जहां से उन्होंने राजनीति एवं दर्शन शास्त्र के साथ इतिहास विषय लेकर बीए (आर्नस) किया था।
दिनकर स्वतंत्रता से पूर्व एक विद्रोही कवि के रुप में स्थापित हुए क्योकिं इनकी कविताओं में ओज, विद्रोह, आक्रोश औऱ क्रांति की पुकार है। दूसरी ओर कोमल भावनाओं की अभिब्यक्ति है। इन्हीं प्रवृतियों का चरम उत्कर्ष इनकी कृति कुरुक्षेत्र और उर्वशी में देखा जा सकता है। इनकी कृति उर्वशी विश्व के टॉप 100 बेस्ट सेलरों में से एक है। इसका स्थान 74वें पायदान पर है।
शिक्षा के उपरान्तएक विद्यालय के प्रधानाचार्य, बिहार सरकार के अधीन सब रजिस्टार, जन संपर्क विभाग के उप निदेशक, लंगट सिंह कॉलेज, मुज्जफरपुर के हिन्दी विभागाध्यक्ष, 1952 से 1963 तक राज्य सभा के सदस्य भी रहे। सन् 1963 में भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति एवं 1965 में भारत सरकार के हिन्दी सलाहकार बनें जो मरते दम तक(मृत्युपर्यन्त)रहें और अपने प्रशासनिक योग्यता का अद्वीतीय परिचय दिया।
साहित्य सेवाओं के लिए इन्हें डी लिट् की मानद उपाधि, विभिन्न संस्थाओं से इनकी पुस्तकों पर पुरस्कार। इन्हें 1959 में साहित्य आकादमी एवं पद्मविभूषण सम्मान से सम्मानित किया गया। 1972 में काव्य संकलन उर्वशी के लिए इन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार द्वारा सम्मानित किया गया था।
दिनकर के काव्य में जहां अपने युग की पीड़ा का मार्मिक अंकन हुआ है, वहां वे शाश्वत और सार्वभौम मूल्यों की सौन्दर्यमयी अभिव्यक्ति के कारण अपने युग की सीमाओं का अतिक्रमण किया है। अर्थात वे कालजीवी एवं कालजयी एक साथ रहे हैं।
राष्ट्रीय आन्दोलन का जितना सुन्दर निरुपण दिनकर के काव्य में उपलब्ध होता है, उतना अन्यत्र नहीं, उन्होने दक्षिणपंथी और उग्रपंथी दोनों धाराओं को आत्मसात करते हुए राष्ट्रीय आन्दोलन का इतिहास ही काव्यवद्ध कर दिया है।
1929 में कांग्रेस से भी मोह भंग हो गया। तब दिनकर जी ने प्रेरित होकर कहा था—
टूकडे़ दिखा—दिखा करते क्यों मृगपति का अपमान।
ओ मद सत्ता के मतवालों बनों ना यूं नादान।।
स्वतंत्रता मिलने के बाद भी कवि युग धर्म से जुडा रहा। उसने देखा कि स्वतंत्रता उस व्यक्ति के लिए नहीं आई है जो शोषित है बल्कि उपभोग तो वे कर रहें हैं जो सत्ता के केन्द्र में हैं। आम जन पहले जैसा ही पीड़ित है, तो उन्होंने नेताओं पर कठोर व्यंग्य करते हुए राजनीतिक ढ़ाचे को ही आडे़ हाथों लिया—
टोपी कहती है मैं थ्ौली बन सकती हूँ
कुरता कहता है मुझे बोरिया ही कर लो।।
ईमान बचाकर कहता है आंखे सबकी,
बिकने को हूँ तैयार खुशी से जो दे दो।।
दिनकर व्यष्टि और समष्टि के सांस्कृतिक सेतु के रुप में भी जाने जाते हैं, जिससे इन्हें राष्ट्रकवि की छवि प्राप्त हुई। इनके काव्यात्मक प्रकृति में इतिहास एसंस्कृति एवं राष्ट्रीयता का वृहद पूट देखा जा सकता है।
दिनकर जी ने राष्ट्रीय काव्य परंपरा के अनुरुप राष्ट्र और राष्ट्रवासियों को जागृत और उदबद बनाने का अपना दायित्व सफलता पूर्वक सम्पन्न किया है। उन्होने अपने पूर्ववर्ती राष्ट्रीय कवियों की राष्ट्रीय चेतना भारतेन्दू से लेकर अपने सामयिक कवियों तक आत्मसातकी और उसे अपने व्यक्तित्व में रंग कर प्रस्तुत किया। किन्तु परम्परा के सार्थक निर्वाह के साथ—साथ उन्होंने अपने आवाह्न को समसामयिक विचारधारा से जोड़कर उसे सृजनात्मक बनाने का प्रयत्न भी किया है। उनकी एक विशेषता थी कि वे साम्राज्यवाद के साथ—साथ सामन्तवाद के भी विरोधी थे। पूंजीवादी शोषण के प्रति उनका दृष्टिकोण अन्त तक विद्रोही रहा। यही कारण है कि उनका आवाह्न आवेग धर्मी होते हुए भी शोषण के प्रति जनता को विद्रोह करने की प्रेरणा देता है।
अतः वह आधुनिकता के धारातल का स्पर्श भी करता है।
इनकी मुख्य कृर्तियांः’ काव्यात्मक(गद्य्)—रेणुकाएद्वन्द गीतएहुंकार (प्रसिद्धी मिली) एरसवन्ती (आत्मा बसती थी) चक्रवातण् धूप—छांव, कुरुक्षेत्र, रश्मिरथि (कर्ण पर आधारित), नील कुसुम, सी—पीण् और शंख, उर्वशी (पुरस्कृत), परशुराम प्रतिज्ञा, हारे को हरिनाम आदि।
गद्य—संस्कृति का चार अध्याय, अर्द नारेश्वर, रेती के फूल, उजली आग, शुध्द कविता की खोज, मिट्टी की ओर, काव्य की भूमिका आदि।
अन्त में 24 अप्रैल 1974 को इनका निधन हो गया। ऐसे वीर साहसी और सहृदयी लेखक को शत—शत नमन। जो भारत भूमि को अपनी लेखनी से सिंचित किया है।